लेखनी कहानी -27-Jan-2023
बाकी रात भी कट गयी। इन्द्र निर्दिष्ट स्थान में जाकर कब्र खोद आया और हम तीनों जनों ने ले जाकर शाहजी की मृत देह को समाहित कर दिया। गंगाजी के ठीक ऊपर, कंकरों का एक कगारा, टूटकर, मानो किसी की ठीक अन्तिम शय्या के लिए ही अपने आप यह जगह बन गयी थी। 20-25 हाथ नीचे ही जाद्रवी मैया की धारा थी- और सिर से ऊपर वन्य-लताओं का आच्छादन। किसी प्रिय वस्तु को सावधानी से लुका रखने के लिए मानो यह स्थान बनाया गया था। बड़े ही भाराक्रान्त हृदय से हम तीनों जनें पास ही बैठे- और एक जन हमारी गोद के ही पास मिट्टी के नीचे चिर-निद्रा में अभिभूत होकर सो गया। तब भी सूर्योदय नहीं हुआ था- नीचे से मन्द-स्रोता भागीरथी का कलकल शब्द कानों में आने लगा- सिर के ऊपर, आसपास, वन के पक्षी प्रभाती गाने लगे। कल जो था आज वह नहीं है। कल सुबह क्या यह सोचा था कि आज रात इस तरह बीतेगी? कौन जानता था कि एक मनुष्य का शेष मुहूर्त इतने निकट आ पहुँचा है?
हठात् जीजी उसकी कब्र पर लेट गयी और विदीर्ण कण्ठ से चिल्लाकर रो पड़ी, “माँ गंगा, मुझे भी अपने चरणों में स्थान दो, मेरे लिए अब और कहीं जगह नहीं है।” उनकी यह प्रार्थना, वह निवेदन, कितना मर्मान्तिक सत्य था यह उस दिन मैं उतनी तीव्रता से अनुभव नहीं कर सका था जितना कि उसके दो दिन बाद कर सका। इन्द्र ने एक बार मेरी ओर ऑंखें उठाकर देखा, इसके बाद उस आर्त्त-स्वर में कहा, “जीजी, तुम मेरे यहाँ चलो- मेरी माँ अब भी जीती हैं, वे तुम्हें फेंकेंगी नहीं, अपनी गोद में उठा लेंगी। वे प्रेम-मूर्ति हैं, एक बार चलकर तुम सिर्फ उनके सामने खड़ी भर हो जाना। चलो, तुम हिन्दू ही की लड़की हो जीजी, मुसलमानिन किसी तरह भी नहीं!”
जीजी कुछ बोली नहीं, कुछ देर उसी तरह मूर्च्छित-सी पड़ी रहीं और अन्त में उठ बैठीं। इसके बाद उठकर हम तीनों ने गंगा-स्नान किया। जीजी ने हाथ की चूड़ियाँ और सुहाग की कण्ठी तोड़कर गंगा में बहा दी। मिट्टी से मस्तक का सिन्दूर पोंछकर, सद्य-विधवा के वेष में सूर्योदय के साथ ही साथ वे कुटी में लौट आईं।
इतने दिनों बाद पहले-पहल आज उन्होंने कहा कि शाहजी उनका पति था किन्तु, इन्द्र के मन में यह बात अच्छी तरह जमकर बैठती ही नहीं थी। संदिग्ध स्वर से उसने प्रश्न किया, “किन्तु तुम तो हिन्दू की लड़की हो जीजी?”
जीजी बोली, “हाँ, ब्राह्मण की लड़की हूँ और वे भी ब्राह्मण थे।”
इन्द्र कुछ देर अवाक् हो रहा, फिर बोला, “उन्होंने अपनी जात क्यों छोड़ दी?”
जीजी बोली, “सो बात मैं अच्छी तरह नहीं जानती भाई। किन्तु जब उन्होंने अपनी जात खो दी, तो उसके साथ मेरी भी खो गयी। स्त्री सहधर्मिणी जो है! नहीं तो वैसे मैंने अपने हाथों अपनी जाति भी नहीं छोड़ी- और किसी दिन किसी तरह का अनाचार भी नहीं किया।”
इन्द्र गाढ़े स्वर में बोला, “सो तो मैं देखता हूँ जीजी! इसीलिए तो जब तब मेरे मन में यही बात आती रही है, मुझे माफ करना जीजी- तुम कैसे यहाँ आ पड़ीं, तुम्हारी किस तरह ऐसी दुर्बुद्धि हुई। परन्तु अब मैं तुम्हारी कोई बात नहीं मानूँगा, मेरे घर तुम्हें चलना ही पड़ेगा। चलो, इसी वक्त चलो।”
जीजी देर तक चुपचाप मानो कुछ सोचती रहीं, फिर मुँह उठाकर धीरे-धीरे बोलीं, “अभी मैं कहीं भी जा न सकूँगी, इन्द्रनाथ।”
“क्यों नहीं जा सकोगी जीजी?”
जीजी बोलीं, “मुझे मालूम है कि वे कुछ 'देना' कर गये हैं। जब तक उसे चुका न दूँ, तब तक मैं कहीं हिल नहीं सकती।”
इन्द्र हठात् क्रुद्ध हो उठा, बोला, “सो तो मैं भी जानता हूँ। ताड़ी की दुकान का, गाँजे की दुकान का जरूर कुछ देना होगा; किन्तु इससे तुम्हें क्या? किसकी ताकत है कि तुमसे रुपया माँगे? चलो तुम मेरे साथ, देखूँ कौन रोकता है तुम्हें?”
इतने दु:ख में भी जीजी को कुछ हँसी आ गयी। बोलीं, “अरे पागल, मुझे रोकने वाला मेरा खुद का ही धर्म है। पति का ऋण मेरा खुद का ही ऋण है और उन लेने वालों को तुम किस तरह रोक सकोगे भाई? यह नहीं हो सकता। आज तुम लोग घर जाओ- मेरे पास जो कुछ थोड़ा-बहुत है, उसे बेच-बाच कर कर्ज चुकाने की कोशिश करूँगी। कल-परसों फिर किसी दिन आना।”
इतनी देर मैं चुपचाप ही था। इस बार बोला, “जीजी, मेरे पास घर में और भी चार-पाँच रुपये पड़े हैं- ले आऊँ क्या?” बात पूरी भी न होने पाई थी कि वे उठकर खड़ी हो गयी और छोटे बच्चे की तरह मुझे अपनी छाती से लगाकर, मेरे मस्तक पर अपने होंठ छुआकर, मेरे मुँह की ओर प्रेम से देखती हुई बोलीं, “नहीं भइया, और लाने को जरूरत नहीं है। उस दिन तुम पाँच रुपये रख गये थे, तुम्हारी वह दया मैं मरने तक याद रखूँगी, भइया! आशीर्वाद दिये जाती हूँ कि भगवान सदा तुम्हारे हृदय के भीतर बसें और इसी तरह दुखियों के लिए ऑंसू बहाते रहें।” बोलते-बोलते ही उनकी ऑंखों से झर-झर नीर झरने लगा।
करीब आठ-नौ बजे हम घर जाने को तैयार हुए। उस दिन वे साथ-साथ रास्ते तक पहुँचाने आयीं। जाते समय इन्द्र का एक-हाथ पकड़कर बोलीं, “इन्द्रनाथ, श्रीकान्त को तो आशीर्वाद दे दिया, किन्तु तुम्हें आशीर्वाद देने का साहस मुझ में नहीं है। तुम मनुष्य के आशीर्वाद के परे हो। इसलिए मैंने आज मन ही मन तुम्हें भगवान के श्रीचरणों में सौंप दिया है। वे तुम्हें अपना लें।”
इन्द्र को उन्होंने पहिचान लिया था। रोकते हुए भी इन्द्र ने उनके पैरों की धूलि सिर पर लेकर प्रणाम किया और रोते-रोते कहा, “जीजी, इस जंगल में तुम्हें अकेली छोड़ जाने को मेरा किसी तरह साहस नहीं होता। मन में न जाने क्यों, ऐसा लगता है कि मैं तुम्हें और न देख पाऊँगा!”
जीजी ने उनका कुछ जवाब नहीं दिया, सहसा मुँह फेरकर ऑंखें पोंछती हुईं वे उसी वन-पथ से अपनी शोक से ढँकी हुई उस शून्य कुटी में लौट गयीं। जहाँ तक दिखाई देती रहीं वहाँ तक मैं उनकी ओर देखता रहा। किन्तु उन्होंने एक बार भी लौटकर नहीं देखा-उसी तरह, मस्तक नीचा किये, एक ही भाव से चलती हुई वे दृष्टि से ओझल हो गयीं और तब, उन्होंने लौटकर क्यों नहीं देखा, इसे मन ही मन हम दोनों ही जनों ने अनुभव किया।
तीन दिन बाद स्कूल की छुट्टी होते ही बाहर आकर देखा कि इन्द्रनाथ फाटक के बाहर खड़ा है। उसका मुँह अत्यन्त शुष्क हो रहा था, पैरों में जूते नहीं थे और वे घुटनों तक धूल में भरे हुए थे। उस अत्यन्त दीन चेहरे को देखकर मैं भयभीत हो गया। वह बड़े आदमी का लड़का था और साधारणतया बाहर से कुछ शौकीन भी था। ऐसी अवस्था में मैंने उसको कभी नहीं देखा था और मैं समझता हूँ कि और किसी ने भी न देखा होगा। इशारा करके मुझे मैदान की ओर ले जाकर उसने कहा, “जीजी नहीं हैं। कहीं चली गयीं। मेरे मुँह की ओर उसने ऑंख उठाकर भी नहीं देखा। बोला, “कल से कितनी जगह जाकर मैं खोज आया हूँ, परन्तु कहीं वे नहीं दिखाई दीं। तेरे लिए वे एक चिट्ठी लिखकर रख गयी हैं; यह ले।” इतना कहकर एक मुड़ा हुआ पीला कागज मेरे हाथ में थमाकर वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ दूसरी ओर चल दिया। जान पड़ा कि हृदय उसका इतना पीड़ित, इतना शोकातुर हो रहा था कि किसी के साथ आलोचना करना उसके लिए असाध्यक था।